Delhi Elections 2020: सभी दल पूर्वांचली वोटरों को लुभाने में लगे, कहीं पंजाबी मतदाता न पलट दें खेल

कांग्रेस नेता चरणजीत सिंह के बाद अबतक दिल्ली की जनता ने किसी सिख नेता को अपना सांसद नहीं चुना है। इस तथ्य का प्रयोग अकसर इस बात को प्रमाणित करने में किया जाता है कि अब दिल्ली के चुनावों में पंजाबी या सिख मतदाताओं का उतना असर नहीं है। लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में यह भ्रम पूरी तरह टूट सकता है। इस बार पूर्वांचली वोटरों को अपने खेमे में करने के लिए सभी पार्टियां एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हैं। दिल्ली में पंजाबी और पूर्वांचली मतदाताओं की संख्या करीब 1.5 करोड़, यानी 70 प्रतिशत है।


 

माना जाता है कि पंजाबी मतदाताओं ने आखिरी बार दिल्ली में साल 1993 में निर्णायक भूमिका निभाई थी, जब भाजपा अपने पंजाबी-बनिया-उच्च जाति के फॉर्मूले के साथ सत्ता में आई थी। इस समय दिल्ली एक बिना विधानसभा के केंद्र शासित प्रदेश से विधानसभा वाली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बनी थी।

दिल्ली में अब पूर्वांचली मतदाताओं की निर्णायक भूमिका बन गई है, जबकि पंजाबी केवल सहायक मतदाताओं की भूमिका तक ही सीमित रह गए। 1998 से 2008 के बीच दिल्ली के पूर्वांचली वोटरों से सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस ने उठाया और उनकी मदद से लगातार तीन बार सरकार बनाई। इसी दौरान पहली बार 2013 और फिर 2015 में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी अस्तित्व में आई और इसमें उनकी सबसे ज्यादा मदद पूर्वांचली वोटरों ने की। 

इसका नतीजा यह हुआ कि इस बार सभी पार्टियां पूर्वांचली वोटरों को लुभाने में लगी हुई हैं। दिल्ली में मनोज तिवारी की मदद से भाजपा इस फिराक में है अधिकतर पूर्वांचली वोट उसके खाते में आएं। वहीं, कांग्रेस इस बार कीर्ति आजाद की मदद से पूर्वांचलियों को अपनी ओर करने में लगी हुई है। इसके अलावा कांग्रेस और भाजपा ने क्रमश: राजद और जदयू के साथ फायदे के इरादे से गठबंधन भी कर लिया है।